शनिवार, 23 जुलाई 2016

कबाली : खोदा पहाड़ निकली चुहिया

निर्माता : कलईपुली एस. थानु
निर्देशक : पा. रंजीत
कलाकार : रजनीकांत, राधिका आप्टे, विंस्टन चाओ, धंसिका


दक्षिण भारतीय फिल्मों के सुपर सितारे रजनीकान्त की ‘कबाली’ का प्रदर्शन पूर्व इतना शोर था, जिसे सुनकर सोचा था लेखक निर्देशक पा.रंजीत जरूर कुछ ऐसा लाए होंगे जिसे देखने कर मजा आएगा लेकिन जब फिल्म देखी तो मुंह से निकला ‘खोदा पहाड निकली चुहिया’। रजनीकांत ने जिस तरह की भूमिका इस फिल्म में निभाई है, वैसी भूमिकाएं तो दक्षिण के कई सितारे निभा रहे हैं। उन्हें लेकर इतनी  कमजोर फिल्म कोई बना सकता है आश्चर्य होता है। निर्देशक के पास सब कुछ था, महानायक, असीमित बजट और सबसे बडी बात बॉक्स ऑफिस पर नोट बरसाने वाले दर्शक लेकिन रंजीत इसका फायदा नहीं उठा पाए।

शुरूआती दृश्य से ही फिल्म का कथानक दर्शकों को समझ में आ जाता है। घिरे पिटे फार्मूले में भी वह रजनीकान्त को देखकर आशा करता है कि जरूर कुछ ऐसा देखने को मिलेगा जो रजनीकान्त ने पहले कभी नहीं दिखाया होगा। सीन-दर-सीन जैसे-जैसे फिल्म बढती है वैसे-वैसे दर्शकों की उम्मीदें खत्म होती जाती हैं और अन्त में सब कुछ सिफर।

फिल्म देखकर इस बात का अहसास होता है कि निर्देशक पा. रंजीत बॉलीवुड निर्देशक मनमोहन देसाई के प्रशंसक रहे हैं। उन्होंने उन्हीं की तरह लास्ट एण्ड फाउण्ड फार्मूले को यहां दिखाया है। इन दृश्यों में भावनाओं के जिस ज्वार की आवश्यकता थी, वह यहां नदारद है। कथा, पटकथा और कमजोर संवादों के साथ ही निर्देशन भी कमजोर है। पटकथा में कई ऐसे झोल हैं जिन्हें दिेखकर बोरियत महसूस होने लगती है। जिस तरह का रजनीकान्त का किरदार है उस हिसाब से फिल्म में पारिवारिक ड्रामे की जरूरत नहीं थी, बल्कि तेज गति के एक्शन और दमदार सवांदों की आवश्यकता थी। यहां सभी कुछ नदारद है।

निर्देशक रजनीकांत की चमक में ही खो गए हैं। उन्हें इस बात का भी अहसास नहीं रहा कि मनोरंजक फिल्म बनाने के लिए बडे सितारे के साथ कसी हुए कथा-पटकथा की जरूरत होती है जिससे दर्शक स्वयं को सितारे के चमक में बंधा पाता है और फिल्म देखने के लिए खिंचा चला आता है। लेकिन यहां उन्होंने अपने लेखनऔर निर्देशन के उन्होंने स्लो मोशन शॉट्स और बैकग्राउंड म्युजिक के जरिये रजनीकांत के किरदार को स्टाइलिश बनाने की कोशिश की है। फिल्म की गति धीमी है। एक्शन रिवेंज ड्रामा की सफलता के लिए फिल्म की गति होना आवश्यक है जो यहां नहीं है। कई ऐसे दृश्य हैं जिनकी कोई जरूरत नहीं है।

अभिनय के लिहाज से रजनीकान्त ने अपनी उम्र के अनुरूप किरदार को जीया है। लेकिन वो बात नजर नहीं आती जो रजनीकान्त में आनी चाहिए थी। उन्होंने वर्षों बाद पत्नी से मिलने के दृश्य में जरूर प्रभावित किया है। इस दृश्य में उन्होंने जो भाव चेहरे पर दिए हैं वह उन्होंने अपनी वास्तविक उम्र के अनुरूप दिए हैं।

राधिका आप्टे ने अपने संक्षिप्त किरदार को बखूबी निभाया है। खलनायक के रूप में आए विंस्टन ने प्रभावी काम किया है। फिल्म में सबसे प्रभावी एंट्री धंसिका की रही है जिन्होंने रजनीकान्त की बेटी का किरदार निभाया है। इस किरदार को मजबूती से पेश किया जा सकता था, लेकिन उनके किरदार का विस्तार सही तरीके से नहीं हो पाया है। फिल्म का छायांकन बेहतरीन है। मलेशिया की खूबसूरती को कैमरामैन ने बखूबी कैमरे में कैद किया है। फिल्म का सम्पादन लचर है। सम्पादन के स्तर पर कम से कम 30 मिनट की फिल्म कम की जा सकती है। गीत-संगीत बोझिल है। पाश्र्व संगीत दर्शकों के सिर पर हथौडे बजाता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि तूफान तो आया नहीं  हल्की से आंधी आकर रह गई। 

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